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राष्ट्रपति मुर्मू का सुप्रीम कोर्ट से सवाल: बिलों पर मंजूरी के लिए समयसीमा कैसे तय कर सकते हैं? |
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के उस हालिया फैसले पर सवाल उठाया है जिसमें राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधानसभाओं द्वारा पारित बिलों पर मंजूरी देने के लिए समयसीमा तय की गई थी। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 143(1) का सहारा लेते हुए सुप्रीम कोर्ट से पूछा है कि जब संविधान में ऐसी कोई समयसीमा का उल्लेख नहीं है तो कोर्ट इस तरह का आदेश कैसे दे सकता है। यह मामला तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल मामले में आए सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल 2025 के फैसले से जुड़ा है, जिसमें कोर्ट ने राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा भेजे गए बिलों पर तीन महीने के भीतर फैसला लेने का निर्देश दिया था।
🔴#BREAKING | President Droupadi Murmu seeks Supreme Court's opinion on matter of deadline set for President and Governor's nods on crucial bills
— NDTV (@ndtv) May 15, 2025
NDTV's @nupurdogra reports pic.twitter.com/hmJKjCPX07
राष्ट्रपति
मुर्मू ने अपने संदर्भ
में 14 सवालों के जरिए कोर्ट
से कई महत्वपूर्ण बिंदुओं
पर स्पष्टता मांगी है। उन्होंने कहा
कि संविधान के अनुच्छेद 200 और
201, जो क्रमशः राज्यपाल और राष्ट्रपति की
शक्तियों को परिभाषित करते
हैं में बिलों पर
फैसला लेने के लिए
कोई समयसीमा या प्रक्रिया निर्धारित
नहीं है। उन्होंने सवाल
उठाया कि क्या कोर्ट
के इस तरह के
आदेश संवैधानिक प्रावधानों पर अतिक्रमण तो
नहीं करते। इसके अलावा उन्होंने
'डीम्ड असेंट' (स्वतः मंजूरी) की अवधारणा को
भी संविधान के ढांचे के
लिए अस्वीकार्य बताया।
राष्ट्रपति
ने यह भी पूछा
कि क्या राज्यपाल और
राष्ट्रपति के फैसले जो
अनुच्छेद 200 और 201 के तहत लिए
जाते हैं, न्यायिक समीक्षा
के दायरे में आते हैं,
खासकर तब जब बिल
अभी कानून नहीं बना हो।
उन्होंने यह भी जिक्र
किया कि सुप्रीम कोर्ट
ने अपने फैसले में
तमिलनाडु के 10 बिलों को स्वतः मंजूर
मान लिया था, जिसके
लिए कोर्ट ने अनुच्छेद 142 का
इस्तेमाल किया था। राष्ट्रपति
ने इस कदम पर
सवाल उठाते हुए पूछा कि
क्या इस तरह की
शक्तियों का उपयोग संवैधानिक
प्रावधानों के दायरे में
है।
इस मामले ने केंद्र और
राज्यों के बीच संबंधों
पर भी बहस छेड़
दी है। राष्ट्रपति ने
कहा कि बिलों पर
फैसला लेते समय राज्यपाल
और राष्ट्रपति को संघीय ढांचे,
राष्ट्रीय एकता, और शक्तियों के
पृथक्करण जैसे कई पहलुओं
पर विचार करना पड़ता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले
को कुछ विशेषज्ञ 'न्यायिक
अतिक्रमण' के रूप में
देख रहे हैं, जबकि
कुछ इसे विधायी प्रक्रिया
को सुचारू बनाने की दिशा में
एक कदम मानते हैं।
सूत्रों
के अनुसार केंद्र सरकार इस फैसले की
समीक्षा के लिए सुप्रीम
कोर्ट में याचिका दायर
करने पर विचार कर
रही है। यह मामला
न केवल संवैधानिक शक्तियों
के दायरे को परिभाषित करेगा,
बल्कि केंद्र-राज्य संबंधों और विधायी प्रक्रिया
में पारदर्शिता को भी प्रभावित
कर सकता है।
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